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कल सुबह सुबह ज्ञानदत्त जी का ब्लॉग पढ़ा | पढ़ते ही मानसिक हलचल शुरू हो गई | काफ़ी कुछ पढ़ कर अच्छा लगा ,कुछ पढ़ कर अच्छा नही लगा | अब तक बहुत सारे लोग अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं|
पीडी ने कुछ अच्छे सवाल उठाये | धीरू भाई को उनसे प्रेरणा मिली ,कुश भाई को पढ़ते पढ़ते ऊब होने लगी तो अवधिया जी ने ऊब को खतरनाक की संज्ञा दे डाली| डॉक्टर अनुराग जी ने अपनी बातो को सिलसिलेवार तथा क्रमबद्ध तरीके से रखा और ताऊ ने इसे जीवन की परिभाषा बतायी |
अब कुछ मेरी बातें | अपनी बातें शुरू करने से पहले मैं ज्ञानदत्त जी से कहना चाहूँगा की इस चिट्ठे को अन्यथा न ले | ये बस मेरे विचार है , अगर इससे आपकी भावनायें को ठेस पहुँचती है तो मैं माफ़ी चाहूँगा | अपना समझ कर माफ़ कर दे |
सृजन की प्रक्रिया कितनी भी धीमी और श्रमसाध्य होती हो पर सृजन वही कर सकता है जिसकी उसमे रूचि हो| बिना रूचि के कोई भी सृजन नही हो सकता है , और जहाँ रूचि होगी वहां ऊब नही हो सकती है | हाँ , छनिक ऊब की अगर हम बात करे तो वो मैं मान सकता हूँ , पर वो भी तब आती है जब आप लगातार किसी एक काम को किया जा रहे हैं , और करते करते इतना थक जाते है की कुछ देर के लिए विश्राम चाहते हैं | अगर ये ऊब है तो मुझे इसमे कोई बुराई नही दिखती है |
मैं नई पीढी का हूँ | मुझे कभी अकेलेपन से डर नही लगा | और मैं तो अक्सर अकेले रहने की कोशिश करता हूँ | और जहाँ तक बात है पुस्तकालय में समय काटना की तो अभी अपनी पीढी के सैकडों लोगो को जानता हूँ ,जो पुस्तकालय में ही समय काटना पसंद करते हैं , मैं जिस छेत्र में हूँ उसमे समय काफ़ी मुश्किल से हमें मिल पाता है | बहुत से ऐसे लेख मैंने पढ़े हैं जिसमे एक सॉफ्टवेर इंजिनियर के बारे मैं लिखा गया हो | इसलिए इनकी जिंदगी कैसी और कितनी व्यस्त होती है कहने की जरुरत नही है , फिर भी हमें जब भी मौका मिलता है,प्रेमचंद को पढ़ते हैं और गालिब को सुनते हैं | मैं और मेरे दोस्त कोई भी अच्छी रचना , अच्छी बुक मिस नही करना चाहते , चाहे वो हिन्दी की मधुभुशन दत्ता, हो या फिर काजी जरुल इस्लाम ,या धन गोपाल मुख़र्जी ,या मुकुल केसवन, या राज कमल झा या , विअक्स स्वरुप या , अनीता देसी , या किरण देसी , या दिनकर जी, गुप्त जी, हरिवंश जी , या धर्मवीर जी हो , या निराला जी, हो या प्रसाद जी ,हो या पन्त जी, हो या दीपक चोपडा जी हो...हम इन सभी को पढ़ते हैं | और अगर आप अंग्रेज़ी की बात करे तो "जॉन ग्रशिम, रोबिन शर्मा, जेफ्री अर्चेर , मून, शेकिल, आदि को हम पढ़ते हैं | हमें तो कभी ऊब नही हुई | हाँ एकरसता के शिकार जरुर हुए और हम उसे भिन्न भिन्न प्रकार के साहित्य पढ़ कर दूर करते रहे |
उतेज़ना कौन नही चाहता है? हां हमारी जेनरेशन घिसी पिटी लीक पर चलना नही चाहती है | हम अपना वजूद ख़ुद बनाना चाहते हैं | हम अपना मार्ग,अपना धेय्य ख़ुद चुनना चाहते हैं | हम किसी का अनुशरण नही करना चाहते | और अगर हम ऐसा करते तो आज हम वही होते जहाँ आज से १०० साल पहले थे | हम किसी चीज़ का अनुशंधान नही करते | किसी चीज़ का आविष्कार नही होता | हम आज भी उसी लालटेन युग में जी रहे होते |
आदमी किसी काम से तभी ऊबता है जब उसके जीवन में एकरसता आ जाती है | उसका काम करने में मन नही लगता है | किसी काम से ऊबने के बाद आप उस काम को कभी अच्छे ढंग से नही कर सकते हैं | एकरसता का शिकार होकर आदमी नीरस हो जाता है | और उस नीरसता के साथ सृजन कभी नही हो सकता है | एकरसता का शिकार तो हम भी कई बार हुए हैं | और जहाँ तक मेरी समझ है इस चीज़ से कोई अछुता नही रह सकता है | हाँ गौर करने वाली बात ये है की हम कैसे इस पर अपना आधिपत्य कायम रखते हैं | कैसे इसे हम अपने आपको नीरस बनाने से रोकते हैं | और कैसे इस एकरसता का रसिक की तरह आनंद उठाते हुए सृजनात्मक कार्यो में दिलचस्पी लेते हैं |
जब हम अपनी पीढी की बात करते हैं तो हम वही है जो दिन के १८ - १८ घंटे काम करते हैं उसके बाद भी तरोताजा रहते हैं | उसके बाद भी हम में इतनी उर्जा रहती है की हम अपने कुछ शौको को अमलीजामा पहना सके | ये शौक कुछ भी हो सकते हैं ... ब्लॉग लिखना, अच्छी अच्छी मूवीज देखना , टीवी देखना , साहित्य पढ़ना , लिखना,...आदि आदि..
हम इस दुनिया में सिर्फ़ रहना नही चाहते हैं, जीना चाहते हैं,...हम जान चुके हैं की हमारी जिंदगी बहुत छोटी है और इसी छोटी सी जिंदगी में ही हमें अपने हर अभिलाषा , हर मनोकामना , हर इच्छा को पूरा करना है , हमें कुछ बनना है ...कुछ कर के दिखाना है | और इसके लिए हम समय के मोहताज़ नही होना चाहते है | इस दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं....
पहला .. जीवन जैसी चल रही है चलने देते हैं , कोई गिला कोई शिकवा नही ...
दूसरा.. जीवन को अपने हाथो में लेते हैं और इसे अपने अनुसार चलाते हैं ..लड़ते हैं ,गिरते हैं लकिन फिर उठ खड़े होते हैं लकिन हार नही मानते ....और मेरा अपना मानना है की नए जेनरेशन के जयादा तर लोग दूसरी जीवन शैली को अपनाते हैं...
मैंने कुश जी और विवेक जी का भी चिटठा पढ़ा...कुश जी के सुझाव गौर करने लायक हैं...और विवेक जी की कविता काफ़ी मस्त हैं...
तो ये थी हमारी यंग जेनरेशन की सोच...जरुर बताएं हमारी सोच कितनी हद्द तक दुरुस्त है...
चलिए आज ऑफिस में जयादा कुछ काम नही था इसलिए ये पोस्ट लिख सका.. २५ से से छुट्टी है और मैं भी चला लम्बी छुट्टी पर...इस लम्बी साप्ताहांत को मैं बंगलोर में मनाऊंगा...
आप सभी को क्रिसमस की हार्धिक शुभकामनाये ....